कोई भी राजनीतिक गुट भले कहीं का भी हो, कितना भी पुराना या नया हो, धार्मिक हो या सेक्यूलर, बायां हो या
दायां, उत्तरी हो कि दक्षिणी - वो तब तक आदर्श रहता है जब तक सत्ता का ख़ून
उसके मुंह को न लगे.
सत्ता के अपने नियम और उसूल होते हैं. सत्ता दसअसल रोम की तरह होती है और "डू इन रोम ऐज़ रोमन्स डू" यानी रोम में वही करो जो हर रोमवासी करता है.
जब यही राजनीतिक गुट सत्ता से बाहर कर दिया जाता है तो फ़ौरन आदर्श, उसूल और नज़रिए कि बुक्कल फिर से मार लेता है.
इसे आप मौक़ापरस्ती कह लें, तोता-चश्मी या कलाबाज़ी कहलें या नज़रिए से बेवफ़ाई कह लें- मगर राजनीति यही थी, है और रहेगी.
अब यही देखिए कि अंग्रेज़ साम्राज्य के ख़िलाफ़ कांग्रेस, मुस्लिम लीग और कम्युनिस्टों ने अपने-अपने हिसाब से आज़ादी के लिए क्या-क्या संघर्ष नहीं किया, ताकि भारतीय उप महाद्वीप के लोग अपनी क़िस्मत ख़ुद तय कर सकें.
फिर हुआ क्या?
आज भी हिंदुस्तान और पाकिस्तान में जिन क़ानूनों के ज़रिए लोगों की आज़ादी छीनी जाती है या उन पर रोक लगाई जाती है, वो सब के सब अंग्रेज़ों से विरासत में मिले थे.ब्रिटेन ने तो उन्हें कब का त्याग दिया पर हमारा शासन इन क़ानूनों को अम्मा के दहेज में आए लोटे की तरह सीने से लगाए बैठा है.
पहले गोरा इन क़ानूनों के ज़रिए कालों को दबाता था. आज काला इसी गोरे क़ानून के ज़रिए दूसरे काले को दबा रहा है.
ऐसा नहीं है कि आज़ादी के बाद बदलाव नहीं आया.
ब्रिटिश इंडियन पीनल कोड को इंडियन या पाकिस्तानी पीनल कोड पुकारा जाने लगा. क्या ये कम बदलाव है?
हमने कितने अरमानों से लोकतंत्र का तसव्वुर अंग्रेज़ों से नक़ल किया. लेकिन इस लोकतंत्र को भी ख़ालिस नहीं रहने दिया. उसे अपने जैसा बना लिया.
यानी सत्ता हासिल करने या बने रहने के लिए ज़रूरत होने पर गधे को भी बाप बना लो, और ज़रूरत हो तो बाप को भी गधा बना दो.
जनता का बस एक ही काम रह गया है, जब कहा जाए वोट डालो, तो वोट डाल दो.
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