Friday, August 17, 2018

अटल बिहारी वाजपेयी ने जब पाकिस्तान की ज़मीन पर रखा था क़दम

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पाकिस्तान यात्रा की यादें वहां के लोगों के ज़हन में अभी भी ज़िदा हैं. उनका वो दोस्ताना अंदाज़ अब भी लोगों को याद है.
पाकिस्तान के पूर्व सूचना मंत्री मुशाहिद हुसैन सैय्यद आज भी उस दिन को भूले नहीं हैं जब वाजपेयी बस में बैठकर, वाघा बॉर्डर पार करके लाहौर पहुंचे थे.
साल 1999 में पाकिस्तान यात्रा के वक़्त मेज़बानी संभालने वाले तत्कालीन मंत्री मुशाहिद हुसैन सैय्यद और इस यात्रा को कवर करने वाले बीबीसी उर्दू के आसिफ़ फ़ारुक़ी की स्मृतियों को बीबीसी संवाददाता शुमाइला जाफ़री ने टटोला.
वो 20 फ़रवरी 1999 की तारीख़ थी. दोपहर 4 बजे का वक्त था. उनकी बस में 20-25 लोग थें जिनमें अभिनेता देवानंद थे, कपिल देव भी थे और जावेद अख़्तर भी.
एक ख़ुशगवार माहौल था. लोगों में उत्साह था. सभी को मालूम था कि ये हिंदुस्तान और पाकिस्तान के लिए एक ऐतिहासिक मौका है.समंज़र ये था कि मई 1998 में भारत ने परमाणु परीक्षण किया था. उसके जवाब में पाकिस्तान ने भी परीक्षण किया. तो ये दोनों देशों को मालूम था कि एक नई हक़ीकत आ चुकी है.
दोनों देश एटमी हमसाये हैं. तो वे जानते थे कि अब कश्मीर मसला बातचीत से ही सुलझ सकेगा और जंग का विकल्प ख़त्म हो गया है.
पाकिस्तान के पूर्व मंत्री मुशाहिद हुसैन सैय्यद बताते हैं- "वाजपेयी को लेकर मेरे मन में भी एक छवि थी. एक तो वो भारत के वज़ीरे आज़म थे. वो भारत जो पाकिस्तान का विरोधी है. दूसरा वो भारतीय जनता पार्टी से थे, जो हिंदुत्व की पार्टी है. लेकिन मैंने देखा कि वाजपेयी एक खुले दिल और दिमाग वाले इंसान हैं. बल्कि मैं तो कहूंगा कि वो हिंदुस्तान के सबसे बड़े स्टेट्समैन थे.''
वे कहते हैं, ''उनका विज़न अमरीका के रिचर्ड निक्सन जैसा लगा, जिन्होंने दक्षिणपंथी रिपब्लिकन होते हुए भी कम्युनिस्ट चीन के साथ संबंध बढ़ाए. उनकी 'आउट ऑफ़ बॉक्स' सोच थी. मैं उनकी विनम्रता से बहुत प्रभावित हुआ. आवाज़ धीमी लेकिन मज़बूत नेता और क्लियर विज़न.''
''वो मीनार-ए-पाकिस्तान गए जो एक मेमोरियल है, जहां साल 1940 में जिन्ना साहब ने पाकिस्तान की बुनियाद रखी थी. मैंने उनसे कहा कि आप ये बहुत बड़ा कदम उठाने जा रहे हैं. तो वो बोले कि उन्हें मालूम है. उन्होंने कहा 'भारत में कुछ लोग नाराज़ होंगे, लेकिन ये ज़रूरी है कि पाकिस्तान की जनता को भरोसा दूं.''
मुशाहिद हुसैन सैय्यद कहते हैं, ''लाहौर डेक्लरेशन के वक्त अतिवादी लोगों ने उनसे कहा कि आप खुद चलकर पाकिस्तान क्यों गए, कश्मीर का ज़िक्र क्यों किया, मीनार-ए-पाकिस्तान क्यों गए. लेकिन फिर भी उन्होंने कदम पीछे नहीं हटाए. गवर्नर हाउस में उन्होंने अमन पर बहुत सी बातें कीं. शेर-ओ-शायरी की.''
''उनमें एक सेंस ऑफ़ ह्यूमर भी था. मुझे याद है मुशर्रफ़ साहब ने उन्हें मुस्कुराते हुए कहा था कि हम आपका शुक्रिया अदा करते हैं कि आपके एटमी धमाकों की वजह से हमें भी एटमी देश बनने का मौका मिला. इस बात पर वाजपेयी भी मुस्कुराए. तो इस तरह के खुशगवार माहौल में बातचीत हुई.''
''फिर जब 20 तारीख़ की रात को मैं उन्हें बैंक्वेट ले जा रहा था तो रास्ते में विरोध प्रदर्शन हो रहा था. इसकी वजह से रास्ता भी बंद हो गया था. हमें आदेश मिला कि इस बारे में वाजपेयी जी को कुछ भी न बताया जाए.''
''मैंने उनके कहा कि वाजपेयी साहब इतने बड़े सियासयतदान हैं, बड़े नेता हैं, उन्हें पता होगा. मैंने वाजपेयी जी को बताया कि सर, माफ़ी चाहता हूं, लोग विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, इसलिए रास्ता ब्लॉक है. तो उन्होंने बड़े आराम से कहा कि कोई बात नहीं, ये होता रहता है, हमारे यहां भी होता रहता है, हम आदी हैं इस चीज़ के.''
मुशाहिद हुसैन सैय्यद आगे बताते हैं, ''जब मैं उनको खाने के लिए लेकर गया तो रास्ते में एक गुरुद्वारा पड़ता है. बोले कि वो वहां जाना चाहते हैं. हमारे वहां पहुंचने से पहले टीयर गैस छोड़ी जा चुकी थी. हवा चल रही थी तो धुआं उनकी आंख तक भी पहुंचा, मुझे बड़ी शर्मिंदगी हुई. मैंने उन्हें टिशू पेपर निकाल कर दिया तो उससे पहले उन्होंने खुद ही अपने रुमाल से आंखें पोंछते हुए कहा कि नहीं-नहीं, हमने ये सब फ़ेस किया है.''
''वो किसी भी तरह के दबाव में बहुत शांति से काम लेते थे. बात तो काफ़ी लोग करते थे, गुजराल साहब भी करते थे, मनमोहन सिंह भी करते थे लेकिन वाजपेयी जी ने जो बात की, उसे करके दिखाया. करगिल के बाद भी उन्होंने मुशर्रफ साहब को दावत दी. साल 2004 में फिर से पाकिस्तान आए. उन्हीं के दौर में साल 2003 का सीज़फायर लागू हुआ.''
''उसके बाद उन्होंने एक नज़्म भी लिखी थी कि हम चाहते हैं कि कश्मीर मसला हल हो..इंसानियत के दायरे में, कश्मीरियत के दायरे में, जम्हूरियत के दायरे में. मैं श्रद्धांजलि देना चाहता हूं भारत के सबसे बड़े स्टेट्स्मैन को.''

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